Upanishad Anka Book in PDF Download
'Upanishads have one meaning, one meaning
(Srikannchikamkotipathadheeshwar Anant Srivibhishit Shrimazhgadguru Shree Sankarakaracharyaji Maharaj)
Many disciplines illuminate the outer fathom of beings and support them in many ways; But the one who publishes the ultimate effort, the one who shows the ultimate effort, and the one who is the supreme benefactor are the Vidya Upanishad. By which the element-curious men get ultimate peace, it is called Paramarth. Removal of all tribulations of afflicted living beings is called supreme benevolence.'Tatra ko Moh: Kah: mourning as a matter of nature.'
It proclaims the complete passion of a man with the Upanishadvidyas, interviewing the Ishavasyopanishadvakya unity. 'Mamatramidamidan' And Duality Ultimately. '
(Gaud 0 Aag 0 14)
'Tatta Satyam Atma Tattvamasi' (Chhandogya 04.7) - Sruti, etc., the charitableness of that Upanishadvidyya She declares. Then how does this eradication of the tribulations of the earthly creatures of the tribes of Upanisvidya afflict? The answer to this is the Shvetashvatar Upanishad - 'Gyanatva Deva and Sarvapashapahani: Kshinai: Clasharjanmritu Prahani
Knowing God Paramdev, all the bonds are cut off, and birth and death get rid of when the tribulations erode.
Without the destruction of the root of sorrows, there is no absolute destruction of sorrows. Although the subjects of karma-worship, religion or farmhouse, etc., retire some of the few sorrows that are received immediately, the sorrow does not re-originate, such a complete recovery of all is not possible without retirement of the original sorrows.
What is the origin of grief? Thinkers say that sorrow is the original birth.
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उपनिषदोंका एक अर्थ है, एक परमार्थ है (श्रीकाञ्चीकामकोटिपीठाधीश्वर अनन्त श्रीविभूषित श्रीमज्जगद्गुरु श्रीशङ्कराचार्यजी महाराज) प्राणियोंके बाह्य अथका प्रकाश करनेवाली तथा नाना प्रकारसे उपकार करनेवाली अनेक विद्याएँ हैं; परंतु परम पुरुषार्थको प्रकाशित करनेवाली, परमार्थको दिखलानेवाली तथा परम उपकारिणी विद्या उपनिषद् है। जिससे तत्त्व- जिज्ञासु पुरुषोंको परम शान्ति प्राप्त होती है, वह परमार्थ कहलाता है। क्लेशग्रस्त जीवोंके समस्त क्लेशोंका निवारण जिससे हो, वह परम उपकार कहलाता है।
'तत्र को मोहः कः शोक एकत्वमनुपश्यतः।'
यह ईशावास्योपनिषद्वाक्य एकत्व के साक्षात्काररूपी उपनिषद्विद्यासे युक्त पुरुषके समूल शौकनाशको उद्घोषित करता है।
'मायामात्रमिदं तथा द्वैतमद्वैतं परमार्थतः ।'(गौड़० आग० १७)
'तत् सत्यं स आत्मा तत्त्वमसि' (छान्दोग्य०६८।७) - इत्यादि श्रुतियाँ उस उपनिषद्विद्याकी परमार्थताको घोषित करती हैं। फिर यह उपनिषद्विद्या क्लेशोंके पात्र सांसारिक प्राणियोंको हठात् प्राप्त होनेवाले क्लेशका उन्मूलन किस प्रकार करती है ? इसका उत्तर श्वेताश्वतर उपनिषद् देती है-
'ज्ञात्वा देवं सर्वपाशापहानिः क्षीणैः क्लेशर्जन्ममृत्यु प्रहाणिः
'परमात्मदेवको जानकर सारे बन्धन कट जाते हैं, क्लेशोंके क्षीण होनेपर जन्म और मृत्युसे छुटकारा मिल जाता है। दुःखोंके मूलका नाश हुए बिना दुःखोंका आत्यन्तिक नाश नहीं बनता। यद्यपि कर्म-उपासना आदि धर्म अथवा खेत घर आदि विषय तत्काल प्राप्त होनेवाले कुछ-न-कुछ दुःखोंकी निवृत्ति तो करते हैं, तथापि जिससे दुःखकी पुनः उत्पत्ति न हो, इस प्रकारकी समस्त दुःखोंकी अत्यन्त निवृत्ति तो त्रिविध दुःखोंके मूलकी निवृत्ति हुए बिना सम्भव नहीं। दुःख का मूल क्या है? विचारक लोग कहते हैं कि दुःखका मूल जन्म है।
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Particulars (विवरण) | (आकार, लेखक, भाषा,पृष्ठ की जानकारी) |
उपनिषद् अंक | Upanishad Anka | |
Gita Press Gorakhpur | |
Upanishad,हिंदू - Hinduism |
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