Antyakarm – Shraddh Prakash Book in PDF Download
The rituals that are performed with devotion for the purpose of ancestors are called Shraddha- 'Shraddhaya pitam
Purpose Vidhina Kriyate Yatkarma Tat Shraddham. The word 'Shraddha' is derived from 'Shraddhaya', 'Shraddhaya kritam sampaditmidam', 'Shraddhaya diyate yasmat tachhradham' and 'Shraddhaya idam shradham'. That is, Shradh for the special karma performed with reverence for the purpose of one's dead ancestor known as the word. This is also called Pitri Yagya, which is described in the scriptures, Puranas et And it is found in many texts like Veeramitroday, Shraddha Kalpalata, Shraddhatattva, Pitrudayita et
According to Maharishi Parashar- 'The action which is performed with faith in the country, time and vessel by the method of Havishyadi, consisting of sesame (Yava) and Darbha (Kush) and mantras, is the same Shradh?
According to Maharishi Brihaspati and the words of Maharishi Pulastya mentioned in the Shraddhatattva - 'A ritual in which the best of cultured (well-cooked) dishes containing milk, ghee and honey are offered to brahmins with reverence for the purpose of the ancestors, is called Shrad
Similarly, in the Brahma Purana, the sign of Shradh is written - 'Whatever is given to a Brahmin for the purpose of the ancestors with a lawful reverence in the country, time and vessel is called Shrad
welfare of the perform
The creature who performs Shradh in a peaceful mind, free from all sins, attains liberation and then does not enter the world cycle. Therefore, the creature must perform Shradh for the satisfaction of the ancestors and also for their welfare. In this world, there is no better way to perform Shradh than to perform Shradh. This fact has also been confirmed by Maharishi Sumant Shraddhat Parataram Nanyachreyaskarmudahritam. Tasmat sarvaprayatne shraadham kuryadvikshakshanah That is, there is no better way in this world than Shradh, so a wise man should do Shradh with diligenc
Not only this, Shradh extends the life of its worshiper, keeps the family tradition intact by providing a son, puts a pile of wealth and grain, infuses strength and virility in the body, provides confirmation, and by expanding fame, bestows all kinds of happiness. doe
freedom from shraa
In this way, Shradh not only makes worldly life happy, it also improves the afterlife and finally gives liberatio
Age: Prajam Dhanam Vidyam Swargam Moksham Sukhani Ch. Prayachhanti and Rajyam Pitrah Shraddhatarpita
(Markandeya Puran)
That is, being satisfied with the Shradh, the ancestors bestow long life, progeny, wealth, education, kingdom, happiness, heaven, and salvation to the performer. Atrisamhita says - The son, brother, grandson or daughter-in-law et live, they surely attain the supreme state. It is even written in the (Shraadh Anushthan) that one who performs Shradh, who knows his law and order, who has the power to perform Shrad
Gives advice and one who approves Shradh - all of them get the reward of Shradh, Updeshtanumanta ch Loke tulufalou smritiu. (Jupiter) One gets goosebumps knowing the harm that his scriptures have told about not performing Shradh. Therefore harm by not performing shradd It is very important to be familiar with the principle of Shradh and be ready for its rituals. It is well known that a dead person cannot even carry his physical body in this Mahayatra, then how can he carry Patheya (food and water)? At that time, whatever his relatives give him through the rituals of Shradh, he gets the same. The scriptures have made arrangements for Pind Daan after death. First of all, six Pinds are given under the funeral procession, which proves the purpose of the happiness of the deities of the land and the removal of obstacles caused by ghosts and demons. Simultaneously, by the ten pinds given in Dashagatra, the living entity attains the intrinsic subtle body. This was the beginning of the great journey of the dead man. Now further he needs Patheya (food on the way - food and water etc.), which he gets from Pind Daan given in Uttamshodashi. If relatives, sons, and grandsons do not give, then due to hunger and thirst, there is a lot of pain ther
suffering to those who do not perform Shra
This is the story of the sufferings of a dead creature due to not performing Shradh. Even those who do not perform Shradh have to face hardships at every step. Dead souls become compulsive and start sucking the blood of their relatives who do not perform Shradh. (Brahma Purana) At the same time they also curse .... Pitarastasya Shapam Dattava Prayan
Then this cursed family has to face hardships and sufferings throughout life. In that family no son is born, no disease remains, there is no long life, no welfare is attained in any way and after death one has to go to hel
It has also been said in the Upanishads that 'Devapitrikaryaabhyam na Pramaditvyam' (Tai-Up 0 1. 11. 1). That is, one should never indulge in the works of gods and ancestors. Pramadse is the opposite.l.y)S.tidhe.hareh.c.a).n.dhs.e.u-erh.h..'c.c.s.'.
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श्राद्ध की परिभाषा
पितरोंके उद्देश्य से विधिपूर्वक जो कर्म श्रद्धासे किया जाता है उसे श्राद्ध कहते हैं- 'श्रद्धया पितॄन् उद्दिश्य विधिना क्रियते यत्कर्म तत् श्राद्धम् ।' श्रद्धासेही श्राद्ध शब्दकी निष्पत्ति होती है 'श्रद्धार्थमिदं श्राद्धम्', 'श्रद्धया कृतं सम्पादितमिदम्', 'श्रद्धया दीयते यस्मात् तच्छ्राद्धम्' तथा 'श्रद्धया इदं श्राद्धम्' । अर्थात् अपने मृत पितृगणके उद्देश्यसे श्रद्धापूर्वक किये जानेवाले कर्मविशेषको श्राद्ध
शब्दके नामसे जाना जाता है। इसे ही पितृयज्ञ भी कहते हैं, जिसका वर्णन मनुस्मृति आदि धर्मशास्त्रों, पुराणों तथा वीरमित्रोदय, श्राद्धकल्पलता, श्राद्धतत्त्व, पितृदयिता आदि अनेक ग्रन्थोंमें प्राप्त होता है।
महर्षि पराशरके अनुसार- 'देश, काल तथा पात्रमें हविष्यादि विधिद्वारा जो कर्म तिल (यव) और दर्भ (कुश) तथा मन्त्रोंसे युक्त होकर श्रद्धापूर्वक किया जाय, वही श्राद्ध है ? ।'
महर्षि बृहस्पति तथा श्राद्धतत्त्वमें वर्णित महर्षि पुलस्त्यके वचनके अनुसार- 'जिस कर्मविशेषमें दुग्ध, घृत और मधुसे युक्त सुसंस्कृत (अच्छी प्रकारसे पकाये हुए) उत्तम व्यंजनको श्रद्धापूर्वक पितृगणके उद्देश्यसे ब्राह्मणादिको प्रदान किया जाय, उसे श्राद्ध कहते हैं।' इसी प्रकार ब्रह्मपुराणमें भी श्राद्धका लक्षण लिखा है- 'देश, काल और पात्रमें विधिपूर्वक श्रद्धासे पितरोंके उद्देश्यसे जो ब्राह्मणको दिया जाय, उसे श्राद्ध कहते हैं३ ।'
श्राद्धकर्ताका भी कल्याण
जो प्राणी विधिपूर्वक शान्तमन होकर श्राद्ध करता है, वह सभी पापोंसे रहित होकर मुक्तिको प्राप्त होता है तथा फिर संसार-चक्रमें नहीं आता है। अतः प्राणीको पितृगणकी सन्तुष्टि तथा अपने कल्याणके लिये भी श्राद्ध अवश्य करना चाहिये। इस संसार में श्राद्ध करनेवालेके लिये श्राद्धसे श्रेष्ठ अन्य कोई कल्याणकारक उपाय नहीं है। इस तथ्यकी पुष्टि महर्षि सुमन्तुद्वारा भी की गयी है—
श्राद्धात् परतरं नान्यच्छ्रेयस्करमुदाहृतम् । तस्मात् सर्वप्रयत्नेन श्राद्धं कुर्याद्विचक्षणः ॥ अर्थात् इस जगत्में श्राद्धसे श्रेष्ठ अन्य कोई कल्याणप्रद उपाय नहीं है, अतः बुद्धिमान् मनुष्यको यत्नपूर्वक श्राद्ध करना चाहिये ।
इतना ही नहीं, श्राद्ध अपने अनुष्ठाताकी आयुको बढ़ा देता है, पुत्र प्रदानकर कुल- परम्पराको अक्षुण्ण रखता है, धन-धान्यका अम्बार लगा देता है, शरीरमें बल-पौरुषका संचार करता है, पुष्टि प्रदान करता है और यशका विस्तार करते हुए सभी प्रकारके सुख प्रदान करता है ।
श्राद्धसे मुक्ति
इस प्रकार श्राद्ध सांसारिक जीवनको तो सुखमय बनाता ही है, परलोकको भी सुधारता है और अन्तमें मुक्ति भी प्रदान करता हैै
आयुः प्रजां धनं विद्यां स्वर्गं मोक्षं सुखानि च । प्रयच्छन्ति तथा राज्यं पितरः श्राद्धतर्पिताः ॥
(मार्कण्डेयपुराण)
अर्थात् श्राद्धसे सन्तुष्ट होकर पितृगण श्राद्धकर्ताको दीर्घ आयु, संतति, धन, विद्या, राज्य, सुख, स्वर्ग एवं मोक्ष प्रदान करते हैं । अत्रिसंहिताका कहना है- जो पुत्र, भ्राता, पौत्र अथवा दौहित्र आदि पितृकार्य रहते हैं, वे निश्चय ही परमगतिको प्राप्त होते हैं । (श्राद्धानुष्ठान ) में संलग्न यहाँतक लिखा है कि जो श्राद्ध करता है, जो उसके विधि-विधानको जानता है, जो श्राद्ध करने की सलाह देता है और जो श्राद्धका अनुमोदन करता है - इन सबको श्राद्धका पुण्यफल मिल जाता है उपदेष्टानुमन्ता च लोके तुल्यफलौ स्मृतौ ॥ (बृहस्पति) अपने शास्त्रने श्राद्ध न करनेसे होनेवाली जो हानि बतायी है, उसे जानकर रोंगटे खड़े हो जाते हैं।
श्राद्ध न करने से हानि
श्राद्ध-तत्त्वसे परिचित होना तथा उसके अनुष्ठानके लिये तत्पर रहना अत्यन्त आवश्यक है। यह सर्वविदित है कि मृत व्यक्ति इस महायात्रामें अपना स्थूल शरीर भी नहीं ले जा सकता है तब पाथेय (अन्न-जल) कैसे ले जा सकता है ? उस समय उसके सगे-सम्बन्धी श्राद्धविधिसे उसे जो कुछ देते हैं, वही उसे मिलता है। शास्त्रने मरणोपरान्त पिण्डदानकी व्यवस्था की है। सर्वप्रथम शवयात्राके अन्तर्गत छः पिण्ड दिये जाते हैं, जिनसे भूमिके अधिष्ठातृ देवताओंकी प्रसन्नता तथा भूत-पिशाचोंद्वारा होनेवाली बाधाओंका निराकरण आदि प्रयोजन सिद्ध होते हैं। इसके साथ ही दशगात्रमें दिये जानेवाले दस पिण्डोंके द्वारा जीवको आतिवाहिक सूक्ष्म शरीरकी प्राप्ति होती है। यह मृत व्यक्तिकी महायात्राके प्रारम्भकी बात हुई। अब आगे उसे पाथेय (रास्तेके भोजन - अन्न-जल आदि) की आवश्यकता पड़ती है, जो उत्तमषोडशीमें दिये जानेवाले पिण्डदानसे उसे प्राप्त होता है। यदि सगे-सम्बन्धी, पुत्र-पौत्रादि न दें तो भूख-प्याससे उसे वहाँ बहुत दारुण दुःख होता है २ ।
श्राद्ध न करनेवाले को कष्ट
यह तो हुई श्राद्ध न करनेसे मृत प्राणीके कष्टोंकी कथा । श्राद्ध न करनेवालेको भी पग-पगपर कष्टका सामना करना पड़ता है। मृत प्राणी बाध्य होकर श्राद्ध न करनेवाले अपने सगे-सम्बन्धियोंका रक्त चूसने लगता है श्राद्धं न कुरुते मोहात् तस्य रक्तं पिबन्ति ते । (ब्रह्मपुराण) साथ-ही-साथ वे शाप भी देते हैं ....पितरस्तस्य शापं दत्त्वा प्रयान्ति च।
(नागरखण्ड)
फिर इस अभिशप्त परिवारको जीवनभर कष्ट-ही-कष्ट झेलना पड़ता है। उस परिवारमें पुत्र नहीं उत्पन्न होता, कोई नीरोग नहीं रहता, लम्बी आयु नहीं होती, किसी तरह कल्याण नहीं प्राप्त होता और मरनेके बाद नरक भी जाना पड़ता है।
उपनिषद्में भी कहा गया है कि 'देवपितृकार्याभ्यां न प्रमदितव्यम्' (तै०उप० १ । ११ । १) । अर्थात् देवता तथा पितरोंके कार्यों में मनुष्यको कदापि प्रमाद नहीं करना चाहिये। प्रमादसे प्रत्यवाय होता है।
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