Ek Duniya Samanantar Book in PDF Download
Often one question haunts me: is Vishwamitra a hero or a villain? What was the world he created like? How were his people, houses, cities and system arranged? How different were those people from the established world? Was this action of the sage wrong or right?
This question often haunts me. Especially today's story-literature, whenever it draws me with its epoch references and understanding, a tenacious-shabby person stands in front of me, the creator of a parallel universe, opens with ill-tempered faith-belief or inspirate-hataya. Every once in a while this world has engulfed, neglected power in pain of realizing the concept of a different, a new and different world..
Was it his defeat or the acceptance of the balance of this world, the escape into an imaginary world considering the audio system to be intractable? Was it to shy away from the present challenge or was it just a daring display of strength? The Puranas have their own arguments in this regard; But I consider this utopia-writing to be a literary experiment or symbol, maybe it is a reaction to the prevailing utopia of heaven!
Art-creation, taking shape from the mental process of the artist, is the only independent creation parallel to this world, that is, the free creation, that is, the operating artist inspired by its own rules of creation and composition, traditions, even if the earth takes soil for this object from the world; He gives his form according to his own dreams, memories, needs, pressures, frustrations and visions, he is the Niyanaya of his 'Utt' world, is Brahma and lives in 'this' world only as an ambassador there. The creation work of the art-world is done by the artist 'that complex, complex and often unexplainable' which is in the moments of creative tension that occurs when the genius has a three-wave vision begins to see objects across. touches their original nature and the artist exposes all his impressions and influences to a new side of nature and object, an undiscovered angle, an unfamiliar form!
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अक्सर एक प्रश्न मुझे परेशान करता है : विश्वामित्र नायक हैं या खलनायक ? जिस संसार की उन्होंने सृष्टि की थी वह कैसा था ? उसके लोग, मकान, नगर और व्यवस्था प्रवन्ध कैसे थे ? वे लोग स्थापित संसार से कितने भिन्न थे ? ऋषि का यह कार्य ग़लत था या सही ?
अक्सर यही प्रश्न मुझे तंग करता है। विशेष रूप से आज का कथा-साहित्य जब-जब अपने युग सन्दर्भों और बोध के साथ मुझे खींचता है तो एक तप-जर्जर व्यक्ति मेरे सामने ग्रा-खड़ा होता है एक समानान्तर सृष्टि का निर्माता, दुर्दान्त श्रात्म-विश्वास या इंस्पेरेट-हताया से खोलता प्रकेला एक व्यक्ति इस दुनिया ने अलग, एक नये और भिन्न संसार की परिकल्पना को साकार करने की पीड़ा में प्रातुर-व्यस्त, उपेक्षित शक्ति..
यह उसकी पराजय थी या इस संसार के प्रसन्तुलन, श्रव्यवस्था को दुस्साध्य मानकर किसी काल्पनिक संसार में पलायन की स्वीकृति ? यह वर्तमान के चैलेंज से कतरा जाना था या शक्ति-सामर्थ्य का दाम्भिक प्रदर्शन मात्र ? -- इस विषय में पुराण कार के अपने तर्क हैं; लेकिन में इस यूटोपिया-लेखन की दिशा में एक साहित्य प्रयोग या प्रतीक मानता हूँ हो सकता है, यह स्वर्ग के प्रचलित यूटोपिया की प्रतिक्रिया हो हो !
कला-सर्जना, कलाकार की मानस प्रक्रिया से ढलकर रूप लेती, इस संसार के समानान्तर स्वतन्त्र सृष्टि ही तो हे स्वतन्त्र सृष्टि, अर्थात् निर्माण और संघटन के अपने नियमों, परम्पराओं से प्रेरित परिचालित कलाकार इसके लिए मिट्टी भले ही इस वस्तु संसार से लेता हो; रूप उसका वह अपने ही स्वप्नों, स्मृतियों, आवश्यकताओं, दवावों, कुण्ठाओं और दृष्टियों के अनुरूप देता है अपने 'उत्त' जगत् का वह नियानया है, ब्रह्मा है और 'इस' जगत् में वहाँ के राजदूत की हैसियत से ही रहता है। कला-जगत् के निर्माण कार्य, कलाकार व्य के 'उस जटिल, संश्लिष्ट और प्रायः अविदलेप्य' के हाथों होता है जो सप्टा है उस रचनात्मक तनाव के क्षणों में होता है जब प्रतिभा को तीन •वेवक दृष्टि वस्तुओं को आर-पार देखने लगती है. उनकी मूल प्रकृति को छू लेती है ● र कलाकार अपने सारे संस्कारों और प्रभावको प्रकृति और वस्तुका एक नया पक्ष, एक अनदेखा कोण, एक अपरिचित रूप सामने रख देता है !
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