हम इक उम्र से वाकिफ हैं
परसाई जैसा बड़ा रचनाकार जब ‘हम इक उस से वाकिफ हैं’ होने की बात करता है तो उसका मतलब सिर्फ उतना ही नहीं होता, क्योंकि उसकी ‘उम्र’ एक युग का पर्याय बन चुकी होती है। इसलिए यह कृति परसाई जी के जीवनालेख के साथ-साथ एक लम्बे रचनात्मक दौर का भी अंकन है। परसाई जी ने इस पुस्तक में अपने जीवन की उन विभिन्न स्थितियों और घटनाओं का वर्णन किया है, जिनमें न केवल उनके रचनाकार व्यक्तित्व का निर्माण हुआ, बल्कि उनकी लेखनी को भी एक नई धार मिल सकी। उनका समूचा जीवन एक सक्रिय बुद्धिजीवी का जीवन रहा। वे सदा सिद्धान्त को कर्म से जोडक़र चले और अपनी रचनात्मकता पर काल्पनिक यथार्थवाद की छाया तक नहीं पडऩे दी। इसलिए आकस्मिक नहीं कि इस पुस्तक में हम उन्हें विभिन्न आन्दोलनरत संगठनों के कुशल संगठनकर्ता के रूप में भी देख पाते हैं
संस्मरण लिखने का प्रस्ताव आया, तो अचानक फैज अहमद फैज का यह शेरद याद आ गया
हम इक उम्र मे वाकिफ हैं अब न समझाओ के. लुत्फ क्या है मेरे मेहरवा सितम क्या है।
मैंने शेर का आरभ का हिस्सा शीर्षक बना दिया हम इक उम्र से वाकिफ हैं। न जाने क्यो उपचेतन से अचानक बालकृष्ण शर्मा 'नवीन की ये पक्तियाँ भी वौध उठी हम विषपायी जनम के सहे अबोल कुबोल नेक न मानत अनख हम जानत अपनो मोल
कही उपचेतन मे जीवन-सघर्ष के अनुभव, कड़वाहट, अपमान और उत्पीडन, अन्याय, यातना की स्मृतियाँ होगी। साथ ही विष यो पचाकर जीने और लडने की स्मृति । और इसके साथ ही आत्मगौरव कि हमने टुच्ची बातों का युरा नही माना। हम अपनी कीमत जानते हैं। वह वीमत हम वसूलते हैं और तुम, कभी हँसने और तकलीफ देनेवाले, अब अपने निर्लज्ज व्यक्तित्व के माथ बह कीमत देते हो, क्योंकि वह कीमत देकर अब तुम छोटे में थोड़ा बडे होते हो। ये अनुभव मुझे बहुत हुए हैं कि जो कभी मेरी निंदा और उपहास करके बड़े बनते थे, वहीं अब यह कहकर बड़े बनते हैं कि दर्शन करके आ रहे हैं यझे इनकी दरिद्रता पर दया आती है और पट्टे पर हैंसी। गुस्सा नही आता।
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