Some Excerpts From the Book Mahabhashya
Mahabhashya is the best explanatory text of Panini Ashtadhyayi, but the mythological world has fabricated a strange story in relation to it. The great commentator considers Pata Janjali to be an incarnation of our mythical brother Sheshnag and says that once Maharishi Panini was taking a bath at the well when Lord Patanjali reached there. Seeing them, Maharishi Panini was terrified and instead of 'Ko Bhavan', 'Kor Bhavan' came out from his mouth. Patanjali hastily said instead of 'Sarpoham'. Paniniji objected 'Refah Kutra Gatha' to Patanjali who replied 'Then Mukhe'. The story does not end here. It is said that some pundits prayed to Lord Patanjali that Ashtadhyayi is difficult, I do not understand well, please explain to us. Patanjali said, put a veil around me and then keep asking questions. The pundits did the same and started asking questions. From inside the screen, Patanjali Maharaj started answering all the questions at once. The pundits kept on writing the answers to their questions for some time, but they were very surprised to hear the answers to many questions at once and out of curiosity, they removed a little veil. Inside, Patanjali Maharaj, assuming his Sheshnag form, was answering questions from a thousand jihwatras. As soon as the veil was removed, he cried out in anger, then all the sheets of the wise men got burnt. Only those letters which a Yaksha was writing sitting on a distant tree, due to the distance the Yaksha could not write down all the questions and answers properly, but due to the burning of other letters, the letters written by him assumed the form of Mahabhashya and that is why The text of Mahabhashya is found to be messy.
There is no need to tell how helpless this story is, it is only to say that at some point, unfortunately, the so-called wise men of our country completely gave up the reading and reading of Ashtadhyayi and Mahabhashya and became the paddock of the well. This was the reason that the best scholars of the city of Kashi, the stronghold of the mythological world, could not answer the small question related to Mahabhashya of Maharishi Dayanand whether there is a noun in the grammar or not. He had never read Mahabhashya. How do you answer? In order to hide his inability according to the proverb of 'Nach Na Jaane Aangan Tedha', he had kept this blasphemous story of Mahabhashya. Now if someone comes and tells you exactly where the text of Mahabhashya is disturbed.
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महाभाष्य पुस्तक के कुछ अंश
महाभाष्य पाणिनीय अष्टाध्यायी का सर्वश्रेष्ठ व्याख्या ग्रन्थ है, परन्तु पौराणिक जगत् ने इसके सम्बन्ध में एक विचित्र कथा घढ़ रखी है। महाभाष्यकार पत ञ्जलि को हमारे पौराणिक भाई शेषनाग का अवतार मानते हैं और कहते हैं क एक बार महर्षि पाणिनि कुएं पर स्नान कर रहे थे कि भगवान् पतञ्जलि वहां जा पहुंचे। उनको देखकर महर्षि पाणिनि घबरा गए और उनके मुख से 'को भवान्' के बदले 'कोर् भवान्' निकल गया । पतञ्जलि ने झट से 'सर्पोऽहम्' के बदले कहा । पाणिनिजी ने आक्षेप किया 'रेफः कुत्र गतः' तो पतञ्जलि जो ने उत्तर दिया 'तब मुखे' । कथा यहां समाप्त नहीं होती। कहते हैं कुछ पण्डितों ने भगवान् पतञ्जलि से प्रार्थना की कि अष्टाध्यायी कठिन है, भली-भांति समझ नहीं प्राती, हमें समझा दीजिए । पतञ्जलि ने कहा कि मेरे चारों ओोर परदा कर दो और फिर प्रश्न करते जाओ । पण्डितों ने ऐसा ही किया और प्रश्न करने लगे। परदे के भीतर से पतञ्जलि महाराज एक साथ सभी प्रश्नों का उत्तर देने लगे। पण्डित लोग कुछ देर तो अपने-अपने प्रश्नों का उत्तर लिखते रहे, परन्तु एक साथ अनेकों प्रश्नों का उत्तर सुनकर उनको बड़ा आश्चर्य हुआ और कौतूहलवश उन्होंने जरा सा परदा हटा दिया। अन्दर पतञ्जलि महाराज अपना शेषनाग रूप धारण किए हुए हजार जिह्वात्रों से प्रश्नों का उत्तर दे रहे थे। परदा हटते ही क्रोध से उन्होंने जो फुंकार मारी तो पण्डितों के सारे पतरे जल गए। बचे केवल वह पतरे जो एक यक्ष किसी दूरस्थ वृक्ष पर बैठा लिख रहा था, दूरी के कारण यक्ष सारे प्रश्न उत्तरों को यथा चत् न लिख पाया था, परन्तु अन्य पतरे जल जाने के कारण उसी के लिखे पतरों ने महाभाष्य का रूप धारण किया और इसीलिए महाभाष्य का पाठ अस्तव्यस्त पाया जाता है ।
यह कथा कितनी बेसिर पैर की है यह बताने की आवश्यकता नहीं कहना केवल इतना ही है कि किसी समय दुर्भाग्यवश हमारे देश के तथाकथित पण्डितों ने अष्टाध्यायी तथा महाभाष्य का पढ़ना-पढ़ना सर्वथा छोड़ दिया और कूप के मण्डूक बन बैठे। यही कारण था कि पौराणिक जगत् के गढ़ काशी नगरी के सर्वश्रेष्ठ विद्वान् महर्षि दयानन्द के महाभाष्यसम्बन्धी इस छोटे से प्रश्न का उत्तर नहीं दे पाये कि व्याकरण में कहीं कल्म संज्ञा की है या नहीं। महाभाष्य उन्होंने कभी पढ़ा ही नहीं था । उत्तर देते तो कसे। 'नाच न जाने आङ्गन टेढ़ा' की लोकोक्ति के अनु सार अपने असामर्थ्य को छिपाने के लिए उन्होंने महाभाष्य की निन्दासूचक यह कथा घड़ रखी थी । अब कोई आकर बताए तो सही कि महाभाष्य का पाठ कहाँ पर अस्त-व्यस्त है।
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महाभाष्य | Mahabhashya PDF | |
पं. युधिष्ठिर मीमांसक / Pt. Yudhishthir Mimansak | |
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