एक श्रावणी दोपहरी की धूप - हिंदी पीडीऍफ़ पुस्तक – कहानी | Ek Shravani Dophari Ki Dhoop - Hindi PDF Book

एक श्रावणी दोपहरी की धूप - हिंदी पीडीऍफ़ पुस्तक – कहानी | Ek Shravani Dophari Ki Dhoop - Hindi PDF Book

Some Excerpts From the Book Ek Shravani Dophari Ki Dhoop

unquenchable hunger

It was eight o'clock. Didi lying on the bed was looking at each piece silently --- towards the ceiling. His hair was scattered on the pillow, hanging here and there. A thick book had been lying near the slippers below, falling down on its face, not knowing how long. To Budhni, the mother used to come near the room stiflingly and peeping back quietly. After being laid till eight o'clock, studying quietly like a patient, keeping silent, making a pathetic posture and looking at the gaze, etc., was creating such an atmosphere that Budhni's mother could not dare to ask anything. The poor man used to come to the seat again and again with a broom in his hand. Finally, going to the younger didi (Miss Flora) she said, "Didi ke ka bhel hai, now le padal wadi finally"

"It is very difficult for Budhni to be her mother since yesterday. She neither eats nor drinks and even when she does not speak, she says that nothing has happened. I don't even have the courage to ask much." Miss Flora said as soon as she ran her shoulders in her hair.

"In the morning the Jhad was cold with Deva. Queen Chalike" Budhni could not even finish her mother's talk that Didi's lovable teenager 'Madalsa' stood up with her face hanging and curiously looked at Miss Flora and Budhni's mother. Started.

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एक श्रावणी दोपहरी की धूप पुस्तक के कुछ अंश

न मिटनेवाली भूख

आठ बज रहे थे। दीदी बिछौने पर पड़ी चुपचाप टुकुर-टुकुर देख रही थी --- छत की ओर। उसके बाल तकिये पर बिखरे हुए थे, इधर-उधर लटक रहे थे। एक मोटी किताब, नीचे चप्पल के पास, औधी मुँह गिरकर न जाने कब से पड़ी हुई थी। बुधनी को माँ दबे पाँव कमरे के पास आती थी और झांककर चुपचाप लौट जाती थी। आठ बजे तक बिछने पर रोगिनी की तरह चुपचाप पढ़ा रहना, मौन साधे, दयनीय मुद्रा बनाकर टकटकी लगा कर देखना आदि बाते कुछ ऐसे वातावरण की सृष्टि कर रही थी कि बुधनी की मां कुछ पूछने की हिम्मत नहीं कर पाती थी। बेचारी हाथ से झाड़ू लेकर बार-बार सीट आती थी। अन्त में छोटी दीदी (मिस फ्लोरा) से जाकर वह बोली, "दीदी के का भेल है, अब ले पड़ल वाडी आखिर "

"बडी मुश्किल है बुधनी को माँ कल से हो उनका यह हाल है। न खाती है, न पीती है और कुछ बोलती भी तो नहीं पूछने पर कहती है कि कुछ हुआ ही नहीं है। ज्यादे कुछ पूछने की हिम्मत भी तो नहीं होती।" मिस फ्लोरा ने बालो मे कंधो चलाते चलाते ही कहा।

"सुबहे से झाड देवे से ठाढ हुई। रानी चलिके "बुधनी को माँ बात पूरी भी नहीं करने पायी थी कि दीदी की प्रिया-चंचला किशोरी 'मदालसा' मुंह लटकाये आकर खड़ी हो गयी और जिज्ञासु दृष्टि से मिस फ्लोरा और बुधनी की माँ को देखने लगी।

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Particulars

(विवरण)


 eBook Details (Size, Writer, Lang. Pages

(आकार, लेखक, भाषा,पृष्ठ की जानकारी)

 पुस्तक का नाम (Name of Book) 

एक श्रावणी दोपहरी की धूप / Ek Shravani Dophari Ki Dhoop PDF

 पुस्तक का लेखक (Name of Author) 

फणीश्वरनाथ रेणु / Phanishwarnath Renu

 पुस्तक की भाषा (Language of Book)

Hindi

 पुस्तक का आकार (Size of Book)

2 MB

  कुल पृष्ठ (Total pages )

 146

 पुस्तक की श्रेणी (Category of Book)

कहानियाँ / Stories


 
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